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मनुष्य, पशु और मनुष्य की पशुता

मेरे अध्यात्मिक अनुभव !
मेरे अध्यात्मिक अनुभव !
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जब भी मैं अपने चारों ओर दृष्टि डालता हूँ , संसार को भांति भांति के जीव जंतुओं से भरा हुआ पाता हूँ और सोचता हूँ कि इन जीव जंतुओं और हम मनुष्यों में क्या अंतर है।वैज्ञानिक दृष्टि से तो अंतर बहुत है लेकिन जब मैं जीवन के उद्देश्य को सामने रखता हूँ तो कोई विशेष अंतर नहीं पाता । सभी जीव जंतु जीवन भर भोजन की तलाश में इधर उधर भटकते और परिश्रम करते है एवं प्रायः आपस में लड़ते झगड़ते रहते है । बहुत से अपने निवास और क्षेत्र के लिए जीवन भर संघर्ष करते है यहाँ तक कि जीवन साथी चुनने के लिए भी उन्हें लड़ाई लड़नी पड़ते है। उन्हें जीवन भर यही सब कुछ करना पड़ता है और फिर वे अगली पीढ़ी को जन्म दे कर मर जाते है।यदि हम इन जीव जंतुओं के उद्देश्य को ढूंढने का प्रयास करें तो उनका केवल के ही उद्देश्य दिखाई देता है जो कि उन्हें  प्रकृति ने प्रदान किया है अगली पीढ़ी को तैयार करना।
फिर मैं हम  मनुष्यों को देखता हूँ तो यहाँ भी कुछ वैसा ही पाता हूँ धन – संपत्ति , सुख-सुविधाओं, अच्छा घर, अच्छी नौकरी, व्यवसाय में सफलता आदि के लिए जीवन भर परिश्रम, प्रतिद्वंदिता और संघर्ष करना ,विवाह करना , अगली पीढ़ी को तैयार करना और फिर मर जाना ।
जब मैं जीवन के उद्देश्य की बात करता हूँ तो पाता हूँ कि प्रकृति ने हम मनुष्यों को अन्य जीव जंतुओं से अलग नहीं रखा है। हम सभी के लिए प्रकृति ने केवल एक ही उद्देश्य रखा है अगली पीढ़ी को तैयार करना और फिर मर जाना। मित्रो ! क्या हम यह मानने को तैयार है कि इस संसार में हमारे जीवन का यही एकमात्र उद्देश्य है ? मुझे लगता है कि कोई भी यह मानने को तैयार नहीं होगा कि संसार में हम संतानोत्पत्ति के द्वारा अगली पीढ़ी को तैयार करने के लिए ही आये है । कोई भी अपने आप को जीव जंतुओं के सदृश्य मानने को राज़ी नहीं होगा। मैं भी नहीं हूँ, लेकिन न मानने से सच्चाई  बदल तो नहीं जाएगी । जब तक हम अपने जीवन के लिए एक ऐसे उद्देश्य का चयन नहीं करते जो अन्य जीव जंतुओं के लिए संभव नहीं है हम पशु समान ही रहेंगे , या यूँ कहें कि पशु ही रहेंगे।
दोस्तों ! हम सभी के पास अपने जीवन के लिए कोई न कोई उद्देश्य ज़रूर ही है जिसे द्वारा हम अधिक से अधिक सम्पन्नता , प्रतिष्ठा , अच्छा पद , मान-सम्मान प्राप्त करना चाहते है इसके लिए कोई डाक्टर , वकील , इंजीनियर आदि बनाना चाहता है तो कोई सफल बिजनस-मैन बनना चाहता है। लेकिन यह सभी उद्देश्य तो केवल हमारी पशु व्रत्ति को ही दर्शाते है। जिस प्रकार  सभी पशु और जीव जंतु भी अपने और अपनी संतान के लिए ही परिश्रम करते है और अपने वर्चस्व के लिए ही आपस में संघर्ष करते है। उसी प्रकार हमारा परिश्रम भी तो केवल अपने और अपने परिवार के लिए धन संपत्ति , मन- सम्मान अर्जित करना है , तो हम किस प्रकार अन्य जीव जंतुओं , पशुओं से अलग हुए ? वे भी स्वयं के लिए जीते है और हम भी , फिर हम कैसे कह सकते है कि हम उनसे श्रेष्ठ है ? यह सत्य है कि हम मनुष्य , दूसरे जीव जंतुओं कि अपेक्षा बहुत अधिक बुद्धिमान है , हमने अपनी बुद्धि के बल पर अपने लिए सुख सुविधाओं के असंख्य साधनों का आविष्कार कर लिया है। पर सब कुछ होते हुए भी हमारी वृत्तियाँ पशुओं के समान ही है। एक पशु भी अपनी प्रवृत्तियों के सामने निर्बल और अवश है वैसे ही हम भी है। हमने नदियों के उफनते हुए पानी को तो बांध बना कर रोक दिया है,लेकिन अपनी भावनाओं पर कोई बांध नहीं बना पाए। हम अपनी प्रवृत्तियों व्  भावनाओ के सामने आज भी उतने ही अवश है जितने सैकड़ों – हजारों साल पहले थे ।अपने पडोसी की सफलता पर हमारा दिल मायूस क्यों हो जाता है , अपनी हार हमें बर्दाश्त नहीं होती नफरत और बदले की आग में एक पति को अपनी पत्नी और बच्चों की जान लेने में देर नहीं लगती। नफरत के चलते एक कौम दूसरी कौम को ही ख़त्म का देना चाहती है ।संसार के एक कोने से दूसरे कोने में जाने में अब ज्यादा समय नहीं लगता पर दिलों की दूरियां इतनी बढ़ गई है कि पूरी उम्र बीत जाती है  लेकिन दूरियाँ कम नहीं होती । अपने दिल में उबलते हुए गुस्से को कितने लोग रोक पाते हैं। हमने हजारों बीमारियों का इलाज ढूंढ़ लिया है लेकिन दिलों में पलने और बढ़ने वाली नफरत का कोई इलाज आज तक नहीं निकाल पाए ।विज्ञानं की तरक्की के साथ ही हमारे दिलों  की जलन भी बढ़ गई है। न चाहते हुए भी अपने पडोसी की तरक्की पर हमारे दिल में एक टीस सी चुभती  है ?  हमने जगहों की दूरियाँ मिटा दी है लेकिन हमारे दिलों की दूरियाँ इतनी बढ़ गई है कि दो पहाड़ों के बीच की गहरी खाई के समान हो गई है ।
दोस्तीं ! विज्ञान की तरक्की ने हमारे लिए सुख सुविधा और विलासता के इतने समान पैदा कर किये है कि पूरी जिंदगी हम उन्हें पाने के लिए बेतहाशा दौड़ते रहते है और एक के बाद दूसरी चीज़ को पाने की चाहत बरकरार रहती है। हम फंस चुके हैं एक ऐसी दौड़ में जो कभी न ख़त्म होने वाली है। अपने स्टेटस को बढ़ाने व् और ज्यादा  पाने – कमाने की चाह ने हमारे भीतर एक ऐसी प्यास पैदा कर दी है जो कभी न बुझने वाली है। इस अंधी दौड़ और न बुझने वाली प्यास के साथ ही एक दिन हमारी जिंदगी का चिराग ज़रूर बुझ जायेगा। हमारा शरीर ज़रूर इंसानों का है और सच है की हमारी बुद्धि भी इंसानों जैसी ही है लेकिन हमारी प्रवृत्तियां बिलकुल  पशुओं जैसी ही है – हिंसक, झगडालू, असहनशील, स्वार्थी व् क्रूर । सच तो यह है की जब इंसान क्रूरता दिखता है तो पशुओं की क्रूरता कहीं पीछे छूट  जाती है। फिर हम यह कैसे कह सकते है कि हम पशुओं और अन्य जीवजंतुओं से अलग है? मित्रों ! या तो हमें यह मान लेना चाहिए कि हम भी संसार के अन्य जीव- जंतुओं के समान ही है या हमें यह सिद्ध करने के लिए कि हम वास्तव में मनुष्य है, अपनी पाशविक प्रवृत्तियों से स्वतंत्र होने के लिए दृढ संकल्प लेना  पड़ेगा। क्या आप तैयार हैं? क्या आप अपने भीतर झाँकने और वहां बैठे पशुओं को ढूंढने,पहचानने की हिम्मत करने और उन्हें निकलने के लिए तैयार हैं?………………………………………………………….

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