अहंकार : आध्यात्मिक उन्नति के पथ पर हमारा सबसे बड़ा “सहायक” !!
मेरे अध्यात्मिक अनुभव !
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मित्रों ! आपको लग रहा होगा कि जिस अहंकार को सभी धर्मों व् विद्वानों ने धर्म मार्ग की सबसे बड़ी बाधा माना है, उसे मैं सबसे बड़ा सहायक कह रहा हूँ । संभवतः मैं व्यंगात्मक शैली में कोई लेख लिख रहा हूँ । नहीं, बिलकुल भी नहीं । पहले की तरह इस बार भी मैं अपने अनुभवों को ही आपके सामने रखने जा रहा हूँ । यह मेरा एक परीक्षण था जो सफल रहा और इसके प्रयोग से मेरी आध्यात्मिक यात्रा अपेक्षाकृत आसान हो गई ।
…………………….अहंकार एक ऐसा मानवीय गुण(अवगुण) है, जो जन्म के बाद से ही हमारे ऊपर नियंत्रण कर लेता है और क्रोध , ईर्ष्या , स्वार्थ ,घृणा , बदले की भावना और अन्य अवगुणों को जन्म देता है। यह एक ऐसा विष है जो हमारे सभी गुणों को दूषित कर हमें संसारिकता में फ़साये रखता है ।लेकिन मित्रों, जिस प्रकार विष ही विष को मारता है, उसी प्रकार हम इस अहंकार रूपी विष का प्रयोग करके, अपने स्वभाव व् अंतर्मन में अन्दर तक फैले विभिन्न प्रकार के विषों को मार सकते है। हाँ, जिस प्रकार विष चिकित्सा में सावधानी से काम लेना पड़ता है, उसी प्रकार यहाँ भी सावधानी से काम लेना पड़ेगा। प्रतिदिन आत्म समीक्षा करनी होगी कि यह दवा उपचार ही करती रहे , हानि न पहुँचाने पाए। इस विधि की खोज मैंने किस प्रकार की इसके बारे में आपको बताना समुचित होगा ।
………………………………सबसे पहले आपको बता दूँ कि मैं एक ईसाई परिवार में पैदा हुआ और मेरा पालन पोषण भी ईसाई धर्म के अनुसार ही हुआ था । मैं बचपन में अपने धर्म के प्रति आकर्षित रहा किन्तु युवा होते होते(लगभग १७ वर्ष की आयु में ) ईसाई धर्म के सिद्धांतों से मेरी बुद्धि का टकराव होने लगा । धीरे धीरे मैंने अन्य धर्म ग्रंथों का भी थोडा बहुत अध्ययन करना आरम्भ किया । मंत्र शास्त्र , यंत्रों ,इस्लामी मन्त्रों व् शाबर मंत्रो की पुस्तकों का भी अध्ययन किया , कुछ मन्त्रों व् यंत्रों को सिद्ध करने का प्रयास भी किया । इस प्रकार अनेक वर्ष बीतते गए । मुझे बैंक में अधिकारी पद पर नियुक्ति मिल गई , फिर विवाह भी हो गया और बच्चे भी । लगभग ४२ वर्ष की आयु में मेरा रुझान ईसाई धर्म की ओर फिर हुआ और इस बार मैंने अपने जीवन में कुछ महत्वपूर्ण परिवर्तनों को अनुभव किया । इन्ही परिवर्तनों के बीच अहंकार के प्रयोग से अध्यात्मिक उन्नति के मार्ग की बाधाओं को हटाने की विधि की खोज भी हो गई। प्रभु येशु की कृपा से प्राप्त चिंतन के वरदान एवं प्रभु येशु की शिक्षाओं ने इस खोज की पृष्ठ भूमि तैयार की । इस गूढ़ विषय पर आगे बढने से पहले हमें ईसाई धर्म की मूल शिक्षाओं पर विचार करना होगा , जिसमे प्रमुख है ” क्षमा ” ।
…………………..जब प्रभु येशु को म्रत्यु दंड दे कर क्रूस पर चढ़ा दिया गया था , तो उन्होंने क्रूस से लटके लटके ही यह वचन कहा था :~ हे पिता , इन्हें क्षमा कर क्योकि ये नहीं जानते कि क्या करते है ( लूका 23 :34)
……………………….प्रभु येशु ने क्रूस से सात वचन कहे थे, जिन्हें प्रति वर्ष गुड फ्राईडे की आराधना में याद किया जाता है। पादरी एवं अन्य वक्ता, इन वचनों पर व्याख्यान देते है और ईसाई समुदाय को इन वचनों से सीखने की शिक्षा दी जाती है ।मैं बचपन से गुड फ्राईडे की आराधना में जाता था । हर वर्ष क्षमा के इस वचन को सुनता और स्वयं से पूछता कि एक व्यक्ति कैसे एक दूसरे व्यक्ति को क्षमा कर सकता है जो उसे अकारण ही सताए , या उसका अहित करे। मेरे प्रश्न सदैव ही अनुत्तरित रहे क्योकि मैंने अपने समाज के लोगों में क्षमा का स्वाभाव नहीं पाया . न ही पादरियों में और न ही उनमें जो आयु या पद में वरिष्ट रहे हों ।मैंने सभी ईसाईयों को क्षमा के मामले में गैर ईसाईयों के समान ही पाया । १७ वर्ष की आयु में जब मैं ईसाई धर्म से विमुख हुआ तो ये प्रश्न मेरे साथअनुत्तरित ही रह गए। मैं आपको यह बताना उचित समझता हूँ कि मेरा ईसाई धर्म से विमुख होना और पुनः आकर्षित होना किन्ही आकस्मिक घटनाओं के कारण नही हुआ था । निरंतर चलने वाले चिंतन के फलस्वरूप ही मैं ईसाई धर्म से विमुख हुआ और आकर्षित भी । इस बार जब मैं ईसाई धर्म की ओर आकर्षित हुआ (या प्रभु यीशु ने मुझे पकड़ लिया ) तो अब तक अनुत्तरित रह गए इन प्रश्नों के उत्तर मुझे ढूंढने ही थे । शीघ्र ही मैं समझ गया कि एक मनुष्य दुसरे मनुष्य को कभी भी क्षमा नहीं कर सकता है । क्योकि प्राकृतिक रूप से मनुष्य (शारीरिक बनावट और स्वाभाव) में अन्य जीवधारियों (जानवरों) के समान ही है जिनका धर्म (स्वाभाव ) स्वयं की आवश्यकताओं की पूर्ति से आरंभ होता है और वहीँ पर समाप्त हो जाता है।
…………………….मैं जानता हूँ कि यह एक कठिन विषय है इसे समझाना जितना कठिन है समझना उससे भी कठिन । आइये इस बिंदु(क्षमा) को थोडा और आसान बनायें । क्षमा के स्थान पर दया लेकर विचार करें कि दया कौन और किस पर कर सकता है ? क्या अपराधी, न्यायाधीश पर दया कर सकता है ? या पापी, पुण्यात्मा पर ? अथवा हिरन, सिंह पर दया कर सकता है ? या निर्बल,बलवान पर दया कर सकता है ? स्पष्ट है कि जो श्रेष्ठ/सामर्थवान है वही अश्रेष्ठ/निर्बल पर दया कर सकता है ।यदि स्वयं के श्रेष्ठ होने का भाव, दया के गुण को उत्पन्न करे तो अच्छा है और यह आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग प्रशस्त कर सकता है ।आइये अब इसे क्षमा के सन्दर्भ में देखें व् प्रभु यीशु के क्षमा वचन पर एक बार पुनः ध्यान करें हे पिता , इन्हें क्षमा कर क्योकि ये नहीं जानते कि क्या करते है । यदि हम सरसरी नज़र से देखेंगे तो कुछ विशेष नहीं पाएंगे, पर अगर हम यहाँ कुछ देर ठहरें और ढूंढें तो क्षमा करने का मार्ग यहीं मिल जायेगा । प्रभु यीशु ने क्षमा करने का एक तर्क प्रस्तुत किया है
“क्योकि ये नहीं जानते कि क्या करते है “
अर्थात जो अज्ञानी है उसे उसके अज्ञान के कारण क्षमा किया जाना चाहिए । प्रभु येशु ना केवल अज्ञानी को क्षमा प्राप्त करने का अवसर प्रदान करते है बल्कि ज्ञानवान द्वारा अज्ञानी को क्षमा करने का मनोविज्ञान भी प्रस्तुत करते है । अब समीकरण बदल जाता है
आदि सत्य यही है कि एक मनुष्य दूसरे मनुष्य को क्षमा नहीं कर सकता
किन्तु एक ज्ञानी(मनुष्य) दूसरे अज्ञानी (मनुष्य) को क्षमा कर सकता है ।
यह एक पूर्णतया मनोवैज्ञानिक (मानसिक) स्थिति है । हम अपने को ज्ञानी और दूसरे को अज्ञानी मानें, इस स्थिति में हम अपने अहंकार का सावधानी पूर्वक प्रयोग कर ह्रदय से क्षमा करने की स्थिति में पहुँच सकते है । यह अभ्यास का विषय है(जिसमे चिंतन सम्मिलित है), कोरे चिंतन का नहीं । कुछ महीनों के अभ्यास के द्वारा( ह्रदय से) क्षमा करने की स्थिति को मैंने प्राप्त कर लिया है । कमियां अभी भी है जिन्हें दूर करना है । मेरी आध्यात्मिक यात्रा अभी जारी है ।मैं इस यात्रा में जो कुछ भी प्राप्त करूँगा, बाँटता चलूँगा । आपने आध्यात्मिक अनुभवों से आपको परिचित करता रहूँगा । आप सभी की प्रतिक्रियाओं की प्रतीक्षा रहेगी ।लेकिन आप सभी से अनुरोध है कि किसी भी प्रकार की प्रतिक्रिया देने से पूर्व इसका परिक्षण अवश्य करें । प्रभु येशु की शांति जो सारी समझ से परे है, हम सबके साथ सदैव बनी रहे ।
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