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विजेन्द्रजी ! क्षमा करें ……………

मेरे अध्यात्मिक अनुभव !
मेरे अध्यात्मिक अनुभव !
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विजेन्द्रजी ! क्षमा करें ……………

मित्रो यह एक लेख नहीं, एक अनुभव है।
क्षमा मांगने से वास्तविक शांति प्राप्त होने का एक सच्चा अनुभव !!
सबसे पहले विजेंद्र जी मुझे क्षमा करें ,अहंकार भाव से लिखी गई अपनी टिप्पणी के लिए
अपनी इसी टिप्पणी के कारण
मैंने आज (25 Sep को ) महसूस किया…..
पराजय का अनुभव !
पथभ्रष्ट होने का अनुभव !!
अहंकार और क्रोध के एक नए रूप का अनुभव !!!
जैसा कि आप जानते ही है कि अपने इस ब्लॉग पर मैं अपनी आध्यात्मिक यात्रा के अनुभव आपके साथ बाँट रहा हूँ । आध्यात्मिक यात्रा में पथभ्रष्ट होने का खतरा तो सदैव ही बना रहता है, तो जागरण के इस मंच पर आज मैं पथभ्रष्ट हुआ और पराजित भी !! लेकिन ईश्वर का धन्यवाद कि मैं पथभ्रष्ट और पराजित होने के बाद, कुछ ही घंटों में अपने अहंकार पर विजय पाने में सफल । कुछ घंटों का यह घटनाक्रम कुछ इस प्रकार घटित हुआ ……………..

आजकल मैं विभिन्न ब्लागरो के लेख पढ़ रहा हूँ, और उन पर अपनी प्रतिक्रियाएं भी दे रहा हूँ । मैंने कई आलोचनात्मक प्रतिक्रियाएं भी दी है, लेकिन अनीता जी के ब्लॉग” ये दोगलापन है इंसान का” पर अपनी प्रतिक्रिया पर विजेन्द्रजी की टिप्पणी पर, मैंने जो जवाब दिया उसने विजेन्द्रजी पर क्या प्रभाव डाला नहीं जानता, लेकिन उसने स्वयं मुझे हिला कर रख दिया। आगे कुछ लिखूं इससे पहले आपको बता दूँ कि अनीता पॉल जी के ब्लॉग पर मेरे और विजेन्द्रजी के बीच कुछ कमेंट्स हुए , क्रम से देखे:-

१.मेरा कमेन्ट : जागरण मंच पर आपके सात लेख सर्वाधिक commented लेख प्रतीत होते है ……………….शायद सर्वाधिक पठित भी……………………. चंद लेखो द्वारा आपने जो उपलब्धि प्राप्त की है, वह सराहनीय है।

अब तक आपको प्रशंसा व् सराहनाये ही मिली है, जो अब आपके लिए सामान्य सी बात रह गई होगी । शायद अब आपको आलोचनाओ की जरुरत है, कुछ कहूँ इससे पहले क्षमा मांगना ज्यादा जरूरी है। मैं स्पष्ट करना चाहता हूँ कि ये पंक्तिया केवल इस लिए लिख रहा हूँ कि वर्तमान समय में धर्म को परिपक्व समझ से देखने की ज़रुरत और बढ़ गई है । आपने अब तक धर्म को जिस नज़र से देखा है, उससे अलग एक नई सोच से धर्म का अन्वेक्षण करने की जरूरत है ।

१.आपने लिखा है “धर्म सारी समस्याओं की जड़ है. दुनियां में अब तक के अधिकांश फसाद, आपसी वैमनस्य जितना धर्म के कारण हुए उतना शायद किसी और कारण से नहीं “

मेरा उत्तर : इसका कारण हमारा अहंकार व् स्वार्थ है न कि धर्म ।

अगली पंक्तियों में स्वयं आपने भी इस तथ्य को स्वीकार किया है “वर्चस्व की लड़ाई का सबसे खतरनाक रुख साम्प्रदायिक दंगों में सामने आता है. लोग सबसे अधिक पशुवत और सबसे ज्यादा अधार्मिक धर्म को मानने के दौरान ही होते हैं. “

वर्चस्व कि लड़ाई के मूल में ” हमारा अहंकार व् स्वार्थ है न कि धर्म ” इस बात को आप अस्वीकार नहीं कर पाएंगी ।

२.आपने लिखा है “इस्लाम और ईसाइयत तो शुरू से तलवार के बल पर ही अपना फैलाव करते रहे हैं. सारे दंगों और फसाद की जड़ ज्यादातर ये ही हैं. “

मेरा उत्तर : इस्लाम और ईसाइयत के बारे में आपकी यह टिप्पड़ी भारत के सन्दर्भ में हो या पूरे विश्व के सच्चाई तो यह है कि राजनीतिक लाभ के लिए शासको ने धर्म का दुरूपयोग किया। लड़ाईयां तो साम्राज्य विस्तार के लिए ही हुई थी, धर्म का तो केवल प्रयोग किया गया था ।

३.आपने लिखा है “ईसाइयत ने अपने फैलाव का एक नया रास्ता खोज निकाला वह है उनका मिशनरी संगठन. लोगों को लालच दे के, उन्हें सहायता का वादा देकर ईसाइयत अपनाने को मजबूर करना और फिर जैसे कुत्तों को रोटी डाली जाती है वैसे ही चन्द सिक्के व सुविधाएं देकर उनका धर्म परिवर्तन करना. “

मेरा उत्तर : जो लोग चंद सिक्को व् सुविधाओ के लिए धर्म परिवर्तन कर लेते है उनके बारे में आपके क्या विचार है मैं नहीं जानता मैं तो केवल इतना ही जानता हूँ कि ऐसे लोग धर्म कि समझ ही नहीं रखते ये लोग अपने को हिन्दू कहें या मुसलमान या इसाई क्या फर्क पड़ता है ।

४..आपने लिखा है “धर्म का प्रसार करना अपने आप में सबसे बड़ा कारोबार है. पूरी दुनियां में एक धर्म विशेष की स्थापना और प्रसार रणनीतिक रूप से सही मानकर किया जाता है. हिंसा को बेचने वाला, हिंसा का व्यापार करने वाला व्यापारी सबसे अधिक धार्मिक होता है. अनेक तरह के जटिल कर्मकांडों का व्यवहार यही धार्मिक व्यापारी करते है. मंदिर-मस्जिद के नाम पे झगड़े चलते रहें इसमें फायदा इसी वर्ग को है. “

मेरा उत्तर : आपने सही कहा है ,हमें समस्या को इसी परिप्रेक्ष में ही देखना चाहिए ।

५.आपने लिखा है “ये दोगलापन है इंसान का. व्यवस्था से ज्यादा महत्व मनुष्य़ और मनुष्यता को देना चाहिए लेकिन होता उल्टा है. यहॉ महत्व व्यवस्था का है और मनुष्य केवल साधन.”

मेरा उत्तर : हमारा अहंकार व् स्वार्थ ही हमें दोगला बनता है इसके लिए धर्म को दोष नहीं देना चाहिए ।

…………………………………………………………………………………..यदि मेरी किसी बात से आपको दुःख पहुंचा हो तो एक बार पुनः क्षमाप्रार्थी हूँ !!

२.विजेन्द्रजी का कमेन्ट : डेनिअल जी आपके पूरे जवाब को पढ़कर ऐसा लगा की सच्चाई शायद कड़वी होती है आपके निम्न जवाब पर कुछ कहना चाहता हूँ(उत्तर : जो लोग चंद सिक्को व् सुविधाओ के लिए धर्म परिवर्तन कर लेते है उनके बारे में आपके क्या विचार है मैं नहीं जानता मैं तो केवल इतना ही जानता हूँ कि ऐसे लोग धर्म कि समझ ही नहीं रखते ये लोग अपने को हिन्दू कहें या मुसलमान या इसाई क्या फर्क पड़ता है ।)भारत में मुझे लगता है 80 % ईसाई धर्म के लोग धर्म परिवर्तन के बाद ईसाई बने है और इस्लाम धर्म के बारे में मेरी जानकारी अनुसार हिन्दुओं को डरा धमका कर मुसलमान बनाया गया मेरी इस बात के पीछे तथ्य यह है की कश्मीर में गुर्जर समुदाय के लोग ईस्लाम धर्म को मानते है ………ईसाई मिशनरी मध्य प्रदेश के झाबुआ जिले में आदिवासियों को लालच देकर धर्म परिवर्तन करवा रहे है …..आप अपने बारे में भी पता करना आप के पूर्वज या आप भी हिन्दू ही रहे होंगे जो किसी कारन से ईसाई बने ……..

३.मेरा कमेन्ट :विजेन्द्रजी !
भारत के शत प्रतिशत इसाई धर्म परिवर्तन के बाद ही इसाई बने है!
……………………….केवल एंग्लो इंडियन के समुदाय को छोड़ कर !!
मेरा पूरा नाम डैनियल कुमार सिंह है , मेरा नाम, मेरे वर्तमान के साथ कुछ पीढियों पहले के इतिहास को बिना पूछे ही बता देता है !!
आप किस कडवी सच्चाई की ओर इंगित कर रहे है ?
जो आप शायद झिझक के कारण नहीं कह पाए मैं ही बता देता हूँ
चार पीढियों पहले हम ईसाई हुए थे, किन कारणों से मैं नहीं कह सकता
और मुझे इससे कोई फर्क भी नहीं पड़ता ………………………………
अनीता जी के ब्लॉग का विषय था धर्म (कोइ धर्म विशेष नहीं )
और मेरा उत्तर भी धर्म (किसी धर्म विशेष नहीं ) से सम्बंधित था
आपने कितनी सहजता से इसे धर्म परिवर्तन से जोड़ दिया
………………………………………आपका प्रयास सफल रहा !
…………………………………….मेरी बधाइयाँ स्वीकार करे !!

अंतिम दो लाइने की बोर्ड पर टाइप करते समय मेरी उँगलियाँ थरथरा गई , पूरे शरीर में भूचाल सा आगया, श्वास की गति असामान्य हो गई ………..प्रतिक्रिया टाइप हो चुकी थी ! विजेन्द्रजी की प्रतिक्रिया से कही मेरा मन आहात हुआ था , उसका बदला तो पूरा हो चुका था । प्रतिक्रिया की प्रतिक्रिया प्रकाशित हो चुकी थी, लेकिन इतनी देर में मैंने क्या खोया ?…मैं शीघ्र ही जान गया………………………….. आध्यात्मिक यात्रा के पथ से मैं भ्रष्ट हो चुका था……………. वह अहंकार जिसे मैं विजित समझ रहा था , एक बार फिर मेरे सामने खड़ा मुस्कुरा रहा था, मानो मेरा उपहास उड़ा रहा हो …..क्यों डैनियल ? कहाँ गया तुम्हारा आध्यात्म ? मैं अजेय हूँ ……..तुम्हारे ह्रदय पर मेरा अधिकार रहेगा, तुम्हारे आध्यात्म का नहीं। हर पल साथ रहने वाली शांति और मन का आनंद जा चुका था। मुझे ज़रा भी अनुमान नहीं था क़ि अंतिम दो लाइनों के साथ इतनी अधिक नकारात्मक उर्जा उत्सर्जित होगी क़ि, जो संपत्ति मैंने इतने दिनों में इकट्ठी की है ,उसे कुछ ही क्षणों में नष्ठ कर देगी। मै जान गया था कि गड़बड़ हो चुकी है, लेकिन मन मानने को तैयार ही नहीं था कि मैंने कुछ गलत किया है। मैं अनमना सा कम्पूटर से उठा और जाकर लेट गया ।बहुत देर तक नींद नहीं आई ,और जब आई तो भी विचारों ने मन को अशांत करना नहीं छोड़ा। कुछ घंटों के उहापोह के बाद मैंने निर्णय ले ही लिया कि जो भी मैंने खोया है, उसे फिर से प्राप्त करना होगा ।अपनी भूल क़ी स्वीकारोक्ति के बिना आत्मिक विकास संभव नही। भूल क़ी स्वीकारोक्ति के बाद भी आत्म समीक्षा जरूरी है, वह भी तटस्थ भाव से। इश्वर क़ी कृपा से तटस्थ भाव उत्पन्न हुआ व् मैंने पूरे घटना क्रम क़ी समीक्षा क़ी जो क़ी आपके समक्ष प्रस्तुत है:-
१.मैंने कई लेखों पर आलोचनात्मक प्रतिक्रियाएं लिखी है, लेकिन सम भाव से ।यहाँ पर मैंने एक प्रतिक्रिया( जहाँ मैंने स्वयं पर कटाक्ष महसूस किया था ) क़ी प्रतिक्रिया क़ी थी ,लेकिन मन में सम भाव नहीं रह गया था फलस्वरूप अंतर्मन की गहराइयों से जाग कर अहंकार कब अपना काम कर गया यह बाद में ही पता चला
२.अंतिम दो लाइनों को लिखते समय मेरे मन में कुछ ऐसे भाव उत्पन्न हुए कि मैंने विजेन्द्रजी को शालीन शब्दों में साम्प्रदायिक कह ही दिया है, लेकिन वह निरुत्तरित हो कर ही रह जायेंगे । मुझे लगा था कि मैंने विजेन्द्रजी को हरा दिया है ।अब यह निश्चित ही था कि इस अहंकार भाव से नकारात्मक उर्जा उत्सर्जित होती, लेकिन इतने दिनों से संचित सकारात्मक उर्जा ने उसका विरोध किया । फलस्वरूप मन के साथ साथ पूरे शरीर में उथल पुथल मच गई ।
३.मनुष्य का स्वभाव है कि वह अपनी गलती मानने को तैयार नहीं होता, सो मेरा मन भी अपनी गलती मानने को सहज ही तैयार नहीं हुआ। वह तर्क देता रहा कि ब्लॉग पर इतनी नोक झोंक तो सामान्य बात है और मैंने कुछ गलत तो नहीं लिखा है। मैंने आत्म समीक्षा में पाया कि यदि मैंने मात्र सत्य लिखने के भाव से ही लिखा होता तो सब ठीक होता, लेकिन जब अहंकार और विजित होने का भाव आजाये तो अब मेरी सकारात्मक उर्जायें उसका निश्चित विरोध करेंगी और यदि मैंने इस सत्य को नहीं स्वीकार तो मेरी आध्यात्मिक यात्रा का यहीं अंत हो जाएगा ।
४. इस सत्य को स्वीकार करते ही मन शांत हो गया । आत्मिक रूप से पराजित हो जाने का एहसास समाप्त हुआ, जो कुछ खोया था वापस पा लिया ।
इस परीक्षा में सफल हुआ इसके लिए ईश्वर को धन्यवाद ! अनीता जी एवं विजेन्द्रजी आपको
भी धन्यवाद कि आपके ब्लॉग व् टिप्पणी ने मुझे यह अवसर दिया कि अपने इस आध्यात्मिक अनुभव को सबके सामने रख सकूँ । ईश्वरआप सभी को आत्म समीक्षा करने व् अहंकार को विजय करने की क्षमता प्रदान करे। इश्वर की शांति जो सारी समझ से परे है, आप सबके साथ सर्वदा बनी रहे ।
…………………………………………….. …………………………धन्यवाद !!!

अनीता जी के ब्लॉग का लिंक है
http://anitasingh.jagranjunction.com/2010/09/23/religious-system/

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